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ईरान में सिख कब पहुंचे, इस इस्लामी देश में उनकी ज़िंदगी और कारोबार कैसा है?

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Gurleen Kaur सिखों ने 20वीं सदी की शुरुआत में ईरान में बसना शुरू किया था

"मैं अभी भी तेहरान जाकर रहना चाहती हूं क्योंकि ईरान एक बहुत ही ख़ूबसूरत देश है. वहां का खाना, पानी, फल और ज़िंदगी बहुत ही ख़ूबसूरत है."

ईरान के ज़ाहेदान में पैदा हुईं गुरलीन कौर की इच्छा अपने पूर्वजों की धरती पर लौटने की है.

गुरलीन कौर अभी पंजाब के मोहाली में रहती हैं. वह भारत सरकार के राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग में सलाहकार हैं और '' नाम का एक यूट्यूब चैनल चलाती हैं.

2 जुलाई 2008 को तेहरान में उनके पिता और चाचा पर हमला होने के बाद वो भारत आ गईं. हमले में उनके चाचा की मौत हो गई थी.

20वीं सदी की शुरुआत से ही ईरान में सिख समुदाय बसा हुआ है. सिखों के पहले गुरु, गुरु नानक देव अपनी चौथी यात्रा के दौरान ईरान आए थे.

image Gurleen Kaur गुरलीन कौर का कहना है कि वो अपने पूर्वजों की धरती पर लौटना चाहती हैं

तेहरान में जन्मे एक सिख नेता ने बीबीसी पंजाबी को बताया कि मौजूदा वक्त में ईरान में लगभग 50 सिख परिवार रहते हैं.

पिछले कुछ दिनों से ईरान और इसराइल के बीच संघर्ष चल रहा है और इसकी आंच ईरान की राजधानी तेहरान तक पहुंची है.

तेहरान में भी बड़ी संख्या में सिख समुदाय के लोग रहते हैं. इस शहर में रहने वाले ज़्यादातर सिख परिवार व्यापार से जुड़े हैं.

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सिख समुदाय ईरान में कब बसा?

दक्षिण एशिया मामलों के कुछ जानकारों के मुताबिक़, साल 1900 और 1920 के बीच काम के अवसरों की तलाश में सिख रावलपिंडी से पर्शिया (जिसे अब ईरान कहा जाता है) चले गए थे. कुछ अन्य सिख जिन्होंने ज़ाहेदान में बसने का फ़ैसला किया, वे ब्रिटिश भारतीय सेना का हिस्सा थे.

प्रथम विश्व युद्ध के बाद कुछ सिखों को मुआवज़े के रूप में ट्रक दिए गए. इसके बाद इनमें से कइयों ने अविभाजित पंजाब से ज़ाहेदान में ट्रक से जुड़े कारोबार शुरू किए.

गुरलीन कौर कहती हैं, "भारत-पाकिस्तान के बंटवारे से पहले पर्शिया इलाक़े में सिर्फ़ ट्रांसपोर्ट का काम करने वाले लोग ही जाते थे. मुख्य रूप से हमारे बुज़ुर्ग ट्रांसपोर्ट के कारोबार में थे या लेन-देन से जुड़े काम करते थे. मेरे दादा सरदार मेहताब सिंह ज़ाहेदान में ट्रक चलाते थे."

पंजाबी यूनिवर्सिटी, पटियाला में धार्मिक अध्ययन के पूर्व प्रोफ़ेसर हरपाल सिंह पन्नू, ईरान की एक यूनिवर्सिटी में विज़िटिंग प्रोफ़ेसर हैं.

हरपाल सिंह पन्नू बताते हैं, "ईरान पाकिस्तान के पश्चिम में है. पाकिस्तान की सीमा पश्चिम में ईरान और उत्तर-पश्चिम में अफ़ग़ानिस्तान से मिलती है. पंजाबियों को पता चला कि वहां की ज़मीन पंजाब जैसी ही है और सस्ती भी है. उसके बाद वे ईरान चले गए और वहां ज़मीनें ख़रीदने लगे. वहां दुष्टेयाब नाम का एक गांव था जो इन किसानों का ही गांव बन गया था."

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image Gurleen Kaur ज़ाहेदान में मौजूद गुरुद्वारा ईरान में सिख गुरुद्वारे कहां हैं?

ईरान में दो मुख्य सिख गुरुद्वारे हैं, एक ज़ाहेदान में और दूसरा तेहरान में.

भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मई 2016 में तेहरान में मौजूद भाई गंगा सिंह सभा गुरुद्वारे गए थे. इससे पहले पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी भी इस गुरुद्वारा साहिब में आए थे.

हरपाल सिंह पन्नू कहते हैं, "एक बार ईरान के पूर्व शासक रज़ा शाह पहलवी दुष्टेयाब गांव से गुज़र रहे थे, तभी उनकी नज़र लंबी दाढ़ी वाले किसानों पर पड़ी. उनकी दाढ़ी खुली हुई थी और सिर पर पगड़ियां बंधी हुई थीं."

"बादशाह घोड़े से उतर कर उनको सलाम करने लगे. जब बादशाह के साथियों ने पूछा कि आपने इनको सलाम क्यों किया तो उन्होंने कहा कि ये इबादत करने वाले फ़कीर हैं. लेकिन उनके साथ रहे लोगों ने उन्हें बताया कि ये फ़कीर नहीं बल्कि हिंदुस्तान के किसान हैं जो यहां खेती करने आए हैं."

पन्नू आगे बताते हैं, "गांव में दरबार लगाने के बाद रज़ा शाह पहलवी ने किसानों को बुलाया. किसानों ने उन्हें फ़कीर कहने के लिए उनका शुक्रिया अदा किया और कहा कि अगर हमारे पास इबादत करने के लिए जगह नहीं है तो फ़कीर होने का क्या फ़ायदा?"

"जब बादशाह ने पूछा तो उन्होंने कहा कि इसके लिए हमें एक एकड़ ज़मीन चाहिए. बादशाह ने एक एकड़ ज़मीन दान देने की बात कही. इस पर किसानों ने कहा कि हमारा धर्म दान की बात नहीं करता, बल्कि मेहनत से पूजा स्थल बनाने की बात करता है."

वो कहते हैं, "उन्होंने बादशाह से ज़मीन ख़रीदने की इजाज़त मांगी जिसे बादशाह ने तुरंत स्वीकार कर लिया. उन्होंने किसानों के सहमत होने पर उन्हें नज़राना भी दिया. बादशाह ने कहा कि जहां ऐसे फ़कीर हों, वहां गांव का नाम दुष्टेयाब नहीं होना चाहिए क्योंकि इसका मतलब 'पानी की चोरी' होता है. इसके बाद गांव का नाम ज़ाहेदान रखा गया जिसका मतलब है 'जो ईश्वर की पूजा करते हैं'."

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image Gurleen Kaur प्रथम विश्व युद्ध के बाद कुछ सिखों को मुआवज़े के रूप में ट्रक दिए गए. इन ट्रकों के साथ उन्होंने अपना कारोबार शुरू किया. सिखों का रहन-सहन और व्यवसाय

वरिष्ठ भारतीय पत्रकार सैयद नक़वी 2001 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ ईरान यात्रा पर गए थे. नक़वी ने ईरानी सिखों पर भी बनाई है.

सैयद नक़वी कहते हैं, "सिखों का ईरानियों से काफ़ी मेलजोल रहा है और उनका एक-दूसरे के घर आना-जाना आम बात है. सभी लोग फ़ारसी बोलते हैं. सिख समुदाय की ख़ास बात यह है कि वे जहां भी जाते हैं, वहां की भाषा और संस्कृति अपना लेते हैं. साथ ही वे अपने पांच ककार (प्रतीक) केश, कड़ा, कंघा, कच्छा और किरपान को संभाल कर रखते हैं."

वे कहते हैं, "ईरान बहुत उदार देश है. सिख वहां बहुत आराम से रहते हैं. हालांकि, शुरुआत में सिख ट्रांसपोर्ट के कारोबार से जुड़े थे, लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने कई दूसरे काम भी अपना लिए हैं."

आजकल, ईरान में सिखों के पास अपने अलग-अलग उद्योग-धंधे हैं.

सैयद नक़वी कहते हैं, "मैंने सिखों के घरों में आयतुल्लाह (ईरान में मुसलमानों के धार्मिक नेता) को देखा है. एक बात तो यह है कि सिख ख़ुद मेहमाननवाज़ होते हैं और दूसरी बात यह है कि ईरानी भी मेहमाननवाज़ होते हैं. यह सोने पर सुहागा जैसा है. वहां धर्म परिवर्तन को लेकर कोई विवाद नहीं है."

प्रोफ़ेसर हरपाल सिंह पन्नू के अनुसार, ईरान में रहने वाले सिख अक्सर घर पर पंजाबी बोलते हैं और व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए फ़ारसी का उपयोग करते हैं.

सिखों के दसवें गुरु, गुरु गोविंद सिंह की अधिकांश कविताएं फ़ारसी में हैं. उन्होंने मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब के अत्याचारों के ख़िलाफ़ 1705 में 'ज़फ़रनामा' लिखा था, जो फ़ारसी में था.

पन्नू कहते हैं, "ईरान में सिखों की मातृभाषा फ़ारसी हो गई है. मैं वहां एक लड़की मंजीत कौर को जानता हूं, जिसकी फ़ारसी पर बहुत अच्छी पकड़ है. उन्हें संसद में अंग्रेज़ी या दूसरी भाषाओं से अनुवाद करने के लिए भी बुलाया जाता है. वो सिर पर चुन्नी (दुपट्टा) पहनती हैं और उन्हें देखने पर पता नहीं चलता कि वो पंजाब से हैं या ईरान से."

पन्नू कहते हैं, "यहां सिख अपने कारोबार के अलावा नौकरी भी करते हैं और सेना में भी सेवाएं दे रहे हैं."

image Getty Images रज़ा शाह पहलवी ईरान में इस्लामी क्रांति

ईरान की इस्लामिक क्रांति सन 1979 में हुई थी. यह क्रांति अमेरिका के ख़िलाफ़ ग़ुस्से की अभिव्यक्ति तो थी ही, साथ ही मोहम्मद रज़ा पहलवी के ख़िलाफ़ विद्रोह भी था.

इस दौरान सत्ताधारी शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी को देश छोड़ना पड़ा. लोगों ने धार्मिक नेता ख़ामेनेई की वापसी का स्वागत किया. ख़ामेनेई 14 साल से देश से बाहर थे.

गुरलीन कौर कहती हैं, "मेरे दादा ने शाह का समय देखा था, लेकिन ख़ामेनेई के आने के बाद माहौल बदल गया था. देश में पूरी तरह से इस्लामिक शासन हो गया था, लेकिन अब बहुत सुधार हो रहे हैं."

प्रोफ़ेसर हरपाल सिंह पन्नू कहते हैं कि ईरान के लोग उदारवादी हैं, लेकिन इस्लामिक क्रांति के बाद कुछ हिंदू और सिख वहां से लौटने लगे.

दूसरी ओर, ईरान में जन्मे एक सिख ने नाम न ज़ाहिर करने की शर्त पर कहा कि ईरान और सिख समुदाय के बीच संबंध हमेशा अच्छे रहे हैं और उन्हें भविष्य में भी अच्छे संबंधों की उम्मीद है.

बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित

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