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गुरु दत्त की फ़िल्म 'मिस्टर एंड मिसेज़ 55' क्या स्त्री विरोधी है?

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SIMON & SCHUSTER PUBLISHER गुरु दत्त और मधुबाला फ़िल्म 'मिस्टर एंड मिसेज़ 55' के एक सीन में

गुरु दत्त की 100वीं सालगिरह के मौक़े पर उनकी एक बहुत पसंद की गई और कमाई के मामले में बेहद सफल रही फ़िल्म पर फिर से नज़र डालना काफ़ी विरोधाभासी और परेशान करने वाला तजुर्बा हो सकता है.

इस साल फ़रवरी में 'मिस्टर एंड मिसेज़ 55' को रिलीज़ हुए 70 साल पूरे हो गए.

यह शायद गुरु दत्त की सबसे विरोधाभासी फ़िल्म थी. समाज के तमाम वर्गों के बीच की खाई और बेरोज़गारी जैसे मुद्दे उठाने के लिए ये फ़िल्म तारीफ़ के क़ाबिल है.

लेकिन, जेंडर लेंस से देखें तो स्त्री-पुरुष संबंधों को लेकर ये फ़िल्म कठघरे में खड़ी की जा सकती है. हो सकता है कि यह फ़िल्म अपने दौर की चिंताओं की उपज हो. जैसे कि शादी और परिवार जैसी सामाजिक संस्थाओं की पवित्रता और स्थिरता पर तलाक़ का मंडराता ख़तरा.

लेकिन, इस फ़िल्म में औरतों के मामले में रूढ़िवादी और उदारवादी दोनों ही तबक़ों की परेशान करने वाली उस कट्टरपंथी सोच का अक़्स भी नज़र आता है, जिसे हम आज के दौर में भी देख रहे हैं.

फ़िल्म की कहानी और इसके किरदारों को यह कहकर बड़ी आसानी से जायज़ ठहराया जा सकता है कि वो तो अपने दौर की कहानी बता रहे थे.

उस समय महिलावाद की बयार अभी बहनी शुरू ही हुई थी और तब इसको लेकर न केवल समझ की कमी थी बल्कि महिलावाद को बहुत बुरी नज़र से देखा जाता था. (हालांकि आज के दौर में भी हालात में कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं आया है.)

दो प्रगतिशील क़ानूनों का फोबिया image LALITA LAJMI फ़िल्म 'प्यासा' में गुरु दत्त और वहीदा रहमान. 1957 में रिलीज़ हुई इस फ़िल्म को टाइम पत्रिका ने दुनिया की 100 सर्वकालिक बेहतरीन फ़िल्मों में जगह दी थी

लेकिन, हिंदी सिनेमा की दो बेहद विचारशील कही जाने वाली दो शख़्सियतों, गुरु दत्त और उनके लेखक अबरार अल्वी ने जिस तरह फ़िल्म की पूरी कहानी को 1954 के स्पेशल मैरिज एक्ट और 1955 के हिंदू मैरिज एक्ट को लेकर लोगों के फोबिया के इर्द-गिर्द बुना वो बेहद निराश करने वाला है.

जबकि इन दोनों ही क़ानूनों ने कई बड़े बदलाव किए थे. शादी और तलाक़ के क़ानूनों की कई कमियों को दूर किया.

इस फ़िल्म में जो कमी नज़र आती है, वो ये है कि इन क़ानूनों को लेकर बारीक़ बहस नहीं दिखती. इसके बजाय इन क़ानूनों को तरक़्क़ीपसंद महिलाओं के हाथों में आए ऐसे हथियार के तौर पर पेश किया गया है, जो सब कुछ बर्बाद कर देगा.

फ़िल्म में प्रगतिशील महिलाओं को ऐसी खलनायिकाओं के तौर पर पेश किया गया है, जो मर्दों से नफ़रत करती हैं और इन दोनों क़ानूनों से मिली ताक़त का बेजा इस्तेमाल करती हैं.

फ़िल्म ये साबित करने की कोशिश करती है कि ऐसी तरक़्क़ीपसंद औरतें समाज के लिए कितनी ख़तरनाक हो सकती हैं.

इस फ़िल्म में एक रईस घर की वारिस युवती अनीता वर्मा (मधुबाला) को उनसे भी ज़्यादा शातिर मिज़ाज और मर्दों से नफ़रत करने वाली बुआ सीता देवी (ललिता पवार) पालती पोसती हैं.

सीता देवी, अनीता की शादी एक बेरोज़गार कार्टूनिस्ट प्रीतम (गुरु दत्त) से कराती हैं.

ये शादी एक दिखावा मात्र होती है. सीता देवी, अनीता की ये दिखावटी शादी सिर्फ़ इसलिए कराती हैं ताकि उन्हें विरासत की संपत्ति मिल सके.

अनीता के पिता को पता था कि उनकी बहन सीता देवी, मर्दों से किस क़दर नफ़रत करती है.

इसीलिए, उन्होंने अपनी वसीयत में ये शर्त रखी थी कि अनीता को अपने हिस्से के 70 लाख रुपए हासिल करने के लिए 21 साल का होने पर एक महीने के भीतर शादी करनी होगी.

सीता देवी ने योजना बनाई थी कि इस दिखावटी शादी के बाद जैसे ही अनीता देवी को विरासत के 70 लाख रुपए मिल जाएंगे, वो अपने पति से तलाक़ लेने का मुक़दमा दायर कर देंगी.

इस साज़िश से नावाक़िफ़ प्रीतम, अनीता से पहले ही एक टेनिस मैच के दौरान मिल चुका होता है, और उसके प्यार में दीवाना हो चुका होता है.

फिल्म के आग़ाज़ से लेकर अंजाम तक ऐसे सीन भरे पड़े हैं, जिनको देखकर सिर पीट लेने का मन करता है.

फ़िल्म की शुरुआत में सीता देवी के घर पर महिलाओं की एक बैठक हो रही होती है, जिसके हवाले से महिलाओं का मजाक उड़ाया जाता है.

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तलाक़ जैसे गंभीर मसले पर चर्चा के लिए हो रही इस बैठक में शामिल महिलाओं की खिल्ली उड़ाई जाती है क्योंकि वो इतने अहम मसले पर हो रही बैठक में भी अपने आपको गोरी दिखाने के लिए दूध की मलाई, संतरे के छिलकों और चिकनी मिट्टी के इस्तेमाल की बातें कर रही होती हैं.

हालांकि अगर औरतें अपनी ख़ूबसूरती पर ध्यान दे भी रही थीं, तो इसमें बुरा क्या है. क्या औरतों को तलाक़ के साथ-साथ अपनी ख़ूबसूरती निखारने को तवज्जो देने का हक़ नहीं है?

सीता देवी और उनकी सबसे क़रीबी मोनी अपने चश्मों और सख़्त मिज़ाज के ज़रिए धूर्त और साज़िश करने वाली औरतों के रूप में इस तरह पेश की गई हैं कि जब वो मर्दों के दबदबे वाले समाज में बिल्कुल वाजिब मसलों जैसे कि औरतों की ख़ुद्दारी और आत्मसम्मान की बातें कर रही होती हैं, तब भी खलनायिकाएं ही नज़र आती हैं.

अगर वो महिलाओं को 'मर्दों की ग़ुलामी' से आज़ाद कराने और 'पति के चरणों की दासी' की ज़ंजीर से छुटकारा दिलाने की बातें कर रही हैं, तो भला इसमें ग़लत क्या है?

ये दुनिया तो महिलाओं की है, लेकिन इसे दिखाया गया है मर्दों के चश्मे से जिसमें वो महिलाओं का इस्तेमाल करके ही दूसरी औरतों को नीचा दिखाते हैं.

जब सीता देवी ये कहती हैं कि मर्दों के पीछे पीछे जाकर औरतें ख़ुद को मूर्ख बनाती हैं, तो अनीता ये कहकर उनका विरोध करती है कि असल में तो औरतें, पुरुषों को बेवक़ूफ़ बनाती हैं. (क्योंकि ख़ुद अनीता देवी भी एक सजीले टेनिस खिलाड़ी रमेश से इकतरफ़ा मुहब्बत में पड़ी होती है).

हालांकि, फिल्म में सीता देवी की बात को सही ठहराने की कोई भी कोशिश नहीं की गई है. बल्कि, एक सच्ची और तर्कपूर्ण बात का मज़ाक़ उड़ाया गया है.

फिर, फ़िल्म में अनीता की आया का किरदार निभाने वाली महिला हमेशा 'औरतों की आज़ादी' और मर्दों के तथाकथित 'ज़ुल्म' के ख़िलाफ़ उनकी लड़ाई का विरोध करती रहती है और इसके लिए हमारी संस्कृति के पश्चिमीकरण को ज़िम्मेदार ठहराती है.

पूरी फ़िल्म में वो यही जुमला दोहराती रहती है, ''सब के सब अंग्रेज़ बने हुए हैं.''

ये जुमला और फिल्म की और भी बहुत सी बातें हैं जो पुराने ज़माने को वापस लाने की मुहिम और मी टू के बाद के आज के दौर में भी सुनाई देती हैं.

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जब ताक़तवर होते महिलावादी आंदोलन को कड़े विरोध का सामना करना पड़ रहा है, या फिर जान-बूझकर महिलाओं के अधिकार के लिए उठ रही आवाज़ों की अनदेखी की जा रही है.

और ये काम सिर्फ़ रूढ़िवादी और घिसी-पिटी सोच वाले ही नहीं, बल्कि वो भी कर रहे हैं, जिनको प्रगतिशील सोच वाला माना जाता है.

महिलाओं की आवाज़ दबाने का सिलसिला आज भी जारी है.

फिल्म का सबसे बुरा किरदार तो प्रीतम की भाभी हैं, जिसे कुमकुम ने निभाया है.

उनको एक आदर्श और संस्कारी महिला के तौर पर पेश किया गया है.

प्रीतम, अनीता को अगवा करके अपने घर ले आता है, जहां उसकी भाभी अनीता को घरेलू महिला के सबक़ सिखाती है.

कुमकुम से 'औरत के लिए घर बसाने से बेहतर और क्या सुख हो सकता है?' जैसे डायलॉग बुलवाए जाते हैं. घर की मुश्किल ज़िंदगी को रूमानी बनाकर इस जुमले के साथ पेश किया जाता है कि, 'अपने घर का काम करने में गृहस्थी का सुख है.'

इसे देखकर मुझे नीरज घेवान की शॉर्ट फिल्म जूस की याद आ गई, जो इसके ठीक उलट तस्वीर पेश करती है और महिलाओं को ज़बरदस्ती रसोई में क़ैद किए जाने की आलोचना करती है.

यहां किसी महिला का अपनी पसंद से शादी करना और बच्चे पालना-पोसना एक अलग बात है.

लेकिन, भाभी के किरदार के ज़रिए जब औरतों की ऐसी भूमिकाओं को आदर्श के तौर पर पेश किया जाता है, तो बहुत सी औरतों पर इसका गहरा असर होता है.

बड़ी ख़राब बात तब होती है, जब अनीता प्रीतम की भाभी से पूछती है कि क्या उनके पति उन्हें मारते भी हैं.

तो भाभी जवाब देती हैं कि, 'पीटते हैं पर प्यार भी तो करते हैं'.

अबरार अलवी इस ग़लत बात का बचाव करने के लिए अपने अदबी जौहर का इस्तेमाल करते हैं और मुहावरे की शक़्ल में पीटने वाले मर्दों का बचाव कुछ इस तरह करते हैं, '' भात के साथ साथ कभी कभी कंकड़ आ जाता है. उससे भात को खाना नहीं छोड़ देते.''

जैसे वो ये कह रहे हों कि शादीशुदा ज़िंदगी में अगर कभी कभार हिंसा या मार-पीट हो तो इससे शादी की व्यवस्था को कठघरे में नहीं खड़ा करना चाहिए.

इस सीन ने मुझे फ़ौरन किरण राव की फ़िल्म लापता लेडीज़ की याद दिला दी, जिसमें मंजू माई (छाया कदम) ये बताती हैं कि उन्होंने अपने मार-पीट करने वाले पति को कैसा क़रारा जवाब दिया था, ''हमरी कमाई खा के हम ही को मारे. ऊपर से कहे जो प्यार करे है, ऊ का मारने का हक़ होता है. एक दिन हम भी घुमा के हक़ जता दिए.''

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फिल्म के तमाम किरदारों की इन मिसालों के बीच ऐसा लगता है कि अनीता यानी मधुबाला का अपना कोई दिमाग़ नहीं है.

शुरुआत में अनीता की ज़िंदगी की बागडोर उसकी बुआ सीता देवी के हाथ में होती है. लेकिन, बाद में उसके ख़यालात की डोर प्रीतम की भाभी के हाथ में आ जाती है.

एक वक़्त ऐसा भी आता है जब प्रीतम बड़े गुरूर के साथ एलान करता है, ''मैं उसके पर बांध चुका हूं. वो नहीं उड़ सकती.'

वैसे प्रीतम तो अनीता के इश्क़ में गिरफ़्तार है. लेकिन, ये समझ से परे है कि अनीता को प्रीतम के साथ घर बसाकर क्या मिलना है?

वैसे तो ये फिल्म एक रोमांटिक कॉमेडी है जिसमें हीरो-हीरोइन के बीच ख़ूबसूरत नोंक-झोंक चलती रहती है.

लेकिन, अनीता में कभी भी प्रीतम के प्रति ज़बरदस्त खिंचाव नज़र नहीं आता. जब प्रीतम अनीता से पूछता है कि क्या वो उसे पसंद करती है, तो अनीता कहती है कि, 'हां. कुछ-कुछ'.

इसीलिए जब फिल्म 'अंत भला तो सब भला' के साथ ख़त्म होती है, तो ऐसा लगता है कि इसका मक़सद शादी की व्यवस्था का मान रखना है, भले ही दबाव में की गई हो या फ़र्ज़ी ही क्यों न हो.

आख़िर में फिल्म की कहानी अनीता की नहीं, बल्कि पति, बच्चों और परिवार को प्राथमिकता देने की है: 'शादी कोई व्यापार नहीं है. उम्र भर साथ निभाना होता है.'

वहीं, दूसरी तरफ़ जब प्रीतम की दुनिया दिखाई जाती है तो गुरु दत्त और लेखक अबरार अल्वी दोनों ही बहुत दिलचस्प काम करते हैं. फिर चाहे वो फिल्म बनाने की कला हो या कहानी.

मसलन फिल्म की शुरुआत में टेनिस मैच का जो सीन है, उसमें प्रीतम लंबे वक़्त तक ख़ामोश रहता है, जबकि उसके आस-पास बैठे लोग लगातार बातें करते रहते हैं.

आख़िर में जब प्रीतम पहली बार मुंह खोलता है तो कोई डायलॉग नहीं बोलता बल्कि एक गाना गाता है: 'दिल पे हुआ ऐसा जादू'.

फिल्म में प्रीतम को एक क़ाबिल ग्रेजुएट और ज़बरदस्त कार्टूनिस्ट के तौर पर दिखाया गया है.

लेकिन देश में भूख और बेकारी की वजह से प्रीतम के जो बुरे हाल होते हैं, वो किसी को भी सोचने पर मजबूर कर सकते हैं.

क्योंकि ये दोनों ही चुनौतियां देश के पढ़े लिखे नौजवानों को ख़ुदकुशी करने के लिए सूखे कुएं या फिर गहरे तालाब की तलाश करने को मजबूर कर देती हैं.

हीरो के हालात के ज़रिए जिस तरह हंसी-हंसी में मुल्क के बुरे हालात को पेश किया गया है, उससे फिल्म हल्की-फु़ल्की होने के बावजूद गंभीर मुद्दे उठाती नज़र आती है.

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फ़िल्म का सबसे अहम दृश्य तो वो है जब सीता देवी प्रीतम से मिलने उस घर में जाती है, जहां वो पेइंग गेस्ट के तौर पर रहता है.

सीता देवी प्रीतम से कहती है कि, ''इतनी छोटी सी जगह में कैसे रहते हो? शायद इससे बेहतर ज़िंदगी नहीं देखी है'.

इसके ज़वाब में प्रीतम कहता है, ''शायद आपने वो ज़िंदगी नहीं देखी जो लाखों बेचारे फुटपाथ पर गुज़ारते हैं.'' इस पर हैरान होकर सीता देवी, प्रीतम से सवाल करती है: 'तुम कम्युनिस्ट हो?' इस सवाल का जो जवाब प्रीतम बड़ी फुर्ती से देता है, वो फिल्म का बेहद यादगार पल है, ''नहीं. कार्टूनिस्ट हूं.'

एक या दो सीन के बाद समाज के अमीर और ग़रीब तबक़ों के बीच की खाई उस वक़्त फिर नज़र आती है, जब प्रीतम अनीता से कहता है , ''दो चार दिन भूखा रहने के बाद भी रोटी नहीं मिलती'. इसके जवाब में अनीता, बेधड़क मगर बेहद असंवेदनशील जुमला बोलती है, जो फ्रांस की रानी मेरी एंतोइनेत की याद दिलाता है,''बिस्कुट क्यों नहीं खा लेते?''

अबरार अल्वी के ये ऐतिहासिक लफ़्ज़ वर्ग संघर्ष पर बड़े चिंताजनक तरीक़े से रोशनी डालते हैं.

देखने वाले के मन में ख़याल आता है कि काश, अबरार अपनी कहानी का केंद्र बिंदु इसी को बनाते या फिर औरतों और मर्दों के संघर्ष को दिखाने के लिए भी कुछ और प्रेरणा देने वाली बातें अपने किरदारों से कहलवाते.

बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित

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