डॉ. मयंक चतुर्वेदी
वो 11 जुलाई 2006 का काला दिन था, जब उन 189 लोगों ने अपने सुनहरे भविष्य की आशा के साथ तमाम सपनों को पूरा करने की जद्दोजहद के बीच मुंबई की लोकल ट्रेन में सफर किया था, उन्हें नहीं पता था कि आज का दिन भी उन्हें पूरा नसीब नहीं होनेवाला, वे अब कुछ ही समय बाद इस दुनिया को अलविदा कह देंगे। सिलसिलेवार सात बम धमाके…189 पैसेंजर मारे जाते हैं और 824 लोग बुरी तरह से घायल होते हैं। जिनमें कई वर्षों बाद आज भी अपने शरीर के अंग खोने एवं अन्य बीमारियों का भयंकर कष्ट हर रोज झेल रहे हैं। अब किससे कहें और कौन उन्हें न्याय देगा?
न्याय के मंदिर में कौन सा निर्णय सही तब या अब ?
पहले ही जो इस बम ब्लास्ट के आरोपी पकड़े गए थे, उनमें से एक को सबूतों के अभाव में छोड़ दिया गया था, शेष जिन 12 तत्कालीन गुनहगारों को सजा हुई, वे भी अब मुंबई हाई कोर्ट से निर्णय में यह कहते हुए बरी कर दिए गए हैं कि उनके खिलाफ शासन कोई ठोस सबूत प्रस्तुत नहीं कर पाया है। अब इससे जुड़े अनेक प्रश्न हैं जो उन तमाम 189 मृत लोगों के परिजनों के और जो जीवित रहे 824 लोग जिनमें से कई अपने शरीर के कोई न कोई अंग ब्लास्ट में खो चुके हैं, उनके और उनके परिवारजनों के मन में कौंध रहे हैं कि आखिर पहले जो निर्णय कोर्ट का दिया गया था, वह सही था या अब सही निर्णय हुआ है!
सबूत तो वे ही पुराने हैं। हो सकता है समय के साथ कुछ सबूतों में क्षीणता आई होगी, किंतु उसके बाद भी जो थ्योरी एवं तत्कालीन साक्ष्य न्यायालय में प्रस्तुत किए गए थे, उनके आधार पर विशेष अदालत ने भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम (मकोका) और गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) की विभिन्न धाराओं के तहत साज़िश रचने और देश के ख़िलाफ़ संगठित तरीके से अपराध करने का दोषी इन सभी आरोपियों को ठहराया था। लेकिन अब पकड़े गए 12 दोषी, दोष मुक्त हैं।
शिकायत न्यायालय से नहीं, सिस्टम से
आप सोचिए; हमारी न्याय प्रणाली और उसके संकटों को! न्यायालय की कार्यप्रणाली पर कोई व्यंग्य नहीं, कोई प्रश्न नहीं, देरी के लिए कुछ भी नहीं कहना, किसी जज से कोई शिकायत नहीं, किंतु देश के वे तमाम लोग और जिस तरह से भारत की अस्मिता इस घटना से धूमिल हुई, वह आज न्याय चाहते हैं। अपने लिए, अपने देश के लिए और उस भारतीय लोकतंत्र के लिए जो यह घोषणा करता है कि किसी के साथ अन्याय नहीं होगा, भले ही न्याय मिलने में देरी हो। ऐसे में जो इस बम कांड से सीधे प्रभावित हुए हैं, उनके न्याय का क्या? क्या यह कोई छोटी घटना है? जहां एक व्यक्ति के जीवन का अत्यधिक मूल्य हो, वहां फिर इस घटना में तो 189 लोगों की जान गई गई!
पहले भी नौ साल चला केस, तब आया था निर्णय
मुंबई में सात उपनगरीय यात्री ट्रेनों में हुए बम विस्फोटों का करीब नौ साल तक केस चलने के बाद स्पेशल मकोका कोर्ट ने 11 सितंबर 2015 को फैसला सुनाया था।जिस व्यक्ति को सबूतों के अभाव में सबसे पहले बरी किया गया था वह अब्दुल वाहिद दीन मोहम्मद शेख (38) है। अब्दुल वाहिद पर पाकिस्तानी बागवानों को शरण देने का आरोप था। एक गवाह अपने बयान से पलट गया। सबूत कमजोर हो गया। अन्य जिन्हें दोषी ठहराए गया था उनमें कमाल अहमद मोहम्मद वकील अंसारी, डॉ. तनवीर अहमद मोहम्मद इब्राहिम अंसारी, मोहम्मद फैसल अताउर रहमान शेख, एहतेशाम कुतुबुद्दीन सिद्दीकी, मोहम्मद माजिद मोहम्मद शफी, शेख मोहम्मद अली आलम शेख, मोहम्मद साजिद मरगूब अंसारी, मुजम्मिल अताउर रहमान शेख, सोहेल महमूद शेख, जमीर अहमद लतीफुर रहमान शेख, नवीद हुसैन खान रशीद हुसैन खान और आसिफ खान शामिल रहे।
इन पर लगे आरोपों के अनुसार, कमाल अंसारी, फैसल शेख, एहतेशाम सिद्दीकी, नवीद खान और आसिफ खान ने विस्फोटों में अहम भूमिका निभाई थी। इन लोगों को आईपीसी की धारा 302 (हत्या) और धारा 120बी (आपराधिक षडयंत्र) के तहत और संगठित अपराध के लिए मकोका की धारा 3 (1) (i) के तहत दोषी ठहराया गया था। दोनों कानूनों में अधिकतम सजा मौत है। वहीं, दोषियों को गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम (यूएपीए), विस्फोटक अधिनियम, विस्फोटक पदार्थ अधिनियम, सार्वजनिक संपत्ति क्षति निवारण अधिनियम और रेलवे अधिनियम की कई अन्य धाराओं के तहत दोषी पाया गया। कमाल अंसारी, मोहम्मद माजिद शफी और नवीद हुसैन को छोड़कर अन्य सभी को आईपीसी की धारा 124 ए के तहत राजद्रोह का दोषी ठहराया गया था।
11 मिनट में हुए थे सात प्रेशर कुकर बम ब्लास्ट
यहां ध्यान रहे कि मुंबई में 11 जुलाई 2006 को मुंबई की वेस्टर्न लाइन की लोकल ट्रेनों में शाम 6:24 से 6:35 बजे के बीच सात बम धमाके हुए थे। खार, बांद्रा, जोगेश्वरी, माहिम, बोरीवली, माटुंगा और मीरा-भायंदर रेलवे स्टेशनों के पास ये ब्लास्ट हुए। बम आरडीएक्स, अमोनियम नाइट्रेट, फ्यूल ऑयल और कीलों से बनाए गए थे, जिसे सात प्रेशर कुकर में रखकर टाइमर के जरिए उड़ाया गया था। सभी धमाके फर्स्ट क्लास कोचों में हुए थे।
जांच में 30 नाम आए सामने, पकड़े गए 13 लोग
पुलिस की चार्जशीट में 30 आरोपी बनाए गए थे। इनमें से 13 की पहचान पाकिस्तानी नागरिकों के तौर पर हुई। एटीएस ने 13 संदिग्धों को गिरफ्तार किया, अन्य फरार बताए गए। एटीएस ने दावा किया कि धमाकों की साजिश लश्कर-ए-तैयबा के आजम चीमा ने पाकिस्तान के बहावलपुर में रची थी। 20 किलोग्राम आरडीएक्स गुजरात के रास्ते भारत लाया गया और उक्त घटना को अंजाम दिया गया।
तत्कालीन समय में जब स्पेशल कोर्ट ने दोषियों को सजा सुनाई, तब न्यायालय के बाहर का दृश्य देखने लायक था। एटीएस टीम खुशी से झूम रही थी। एक-दूसरे का मुस्कुराते हुए अभिवादन कर रही थी और तस्वीरें खिंचवा रही थी। बम ब्लास्ट की जाँच के दौरान एंटी टेररिज्म स्क्वाड (एटीएस) से जुड़े सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी केपी रघुवंशी ने वहां मौजूद अधिकारियों जिनमें से कुछ अब सेवानिवृत्त हो चुके हैं को गले लगाया और सभी की मेहनत सफल होने पर उन्हें बधाई दी। उस समय के एटीएस प्रमुख विवेक फणसलकर बोले थे कि पूरे मामले को एक साथ जोड़ने के लिए सबूत इकट्ठा करने और बयान दर्ज करने में 135 अधिकारियों ने दिन-रात मेहनत की। इस फैसले से बहुत संतुष्टि मिली है।
पीड़ित परिवार अचंभित
आप गंभीर संवेदनशील कल्पना करें और सोचें; यह दिन उन 189 पीड़ितों के परिवारों के लिए कितना अधिक भावुक दिन रहा होगा! नंदिनी जोकि 27 साल की थी, 11 जुलाई 2006 को बोरीवली स्टेशन पर हुए धमाके में मारी गई, उसके पिता रमेश नाइक ने न्याय के लिए लगातार लड़ाई लड़ी। पहले जब निर्णय आया था तब परिवार खुश था कि चलो बेटी को इंसाफ मिला, पर आज इंसाफ की लड़ाई लड़नेवाला ये परिवार अपने को टूटा महसूस कर रहा है।
हेमलता दिल्लौद के पिता की मीरा रोड और भयंदर के बीच ट्रेन में बम विस्फोट से मृत्यु हो गई थी, तब वे 18 साल की थीं। उन्हें सरकार ने पश्चिम रेलवे में मलाड स्टेशन पर चपरासी की नौकरी दे दी जोकि निर्णय आनेवाले दिन तक भयंदर में बुकिंग क्लर्क हो गई थीं, जैसे ही उन्हें न्यायालय के इस फैसले की जानकारी लगी वे फूट-फूट कर रो रही थीं, इनका कहना रहा कि इन लोगों को फांसी होनी चाहिए थी। मैंने अपने पिता को सिर्फ 40 साल की उम्र में खो दिया था। उनके परिवारों को भी उनकी कमी खलनी चाहिए। हेमलता दिल्लौद और रमेश नाइक की तरह हर किसी पीड़ित परिवार की अपनी दुख भरी कहानी है। ये सभी परिवार न्याय की वेदी पर अपने को ठगा महसूस कर रहे हैं। कई इस नए निर्णय आने के बाद रो पड़े हैं। वास्तव में ये दर्द सिर्फ एक परिवार का नहीं है। ये पीड़ा उन सभी परिवारों की है, जोकि किसी न किसी रूप में इस आतंकी घटना से प्रभावित हुए।
इस एक निर्णय ने बदल दिए , सभी मायने!
अब ये नया फैसला घटना के 19 साल बाद आया है, जिसने एक झटके में जैसा कि एटीएस का दावा था कि 135 अधिकारियों ने दिन-रात मेहनत के बाद आरोप सिद्ध हो पाए और दोषियों को सजा हुई, आज वह मेहनत सब बेकार हो चुकी है। वहीं, अदालत के बाहर का जो दृष्य था वह एटीएस टीम की खुशी से झूमनेवाला, एक-दूसरे का मुस्कुराते हुए अभिवादन कर तस्वीरें खिंचवानेवाला, उसका अब कोई मतलब नहीं रह गया है। आज मुंबई हाईकोर्ट ने कहा है कि प्रॉसीक्यूशन यानी सरकारी वकील आरोपियों के खिलाफ केस साबित करने में नाकाम रहे हैं।यह मानना मुश्किल है कि आरोपियों ने अपराध किया है, इसलिए उन्हें बरी किया जाता है। अगर वे किसी दूसरे मामले में वांटेड नहीं हैं, तो उन्हें तुरंत जेल से रिहा किया जाए। और फिर क्या था, कोर्ट के आदेश की तामील सोमवार 21 जुलाई की शाम से शुरू हो गई है।
देश पूछ रहा, फिर दोषी कौन ?
देश में घटी ये कोई छोटी घटना नहीं है। आज देश जानना चाहता है कि ये सभी दोषी नहीं तो कौन उन बम ब्लास्ट का गुनहगार है? क्या जिम्मेदारी कभी किसी की तय होगी? कोई तो गुनहगार होगा उन बम धमाकों का? पहले स्पेशल कोर्ट ने कमाल अंसारी, मोहम्मद फैजल शेख, एहतेशाम सिद्दीकी, नावीद खान, आसिफ खान इन पांच आरोपियों को फांसी की सजा सुनाई गई थी और तनवीर अहमद अंसारी, मोहम्मद माजिद, शेख मोहम्मद, साजिद अंसारी, मुजम्मिल शेख, सुहैल शेख और जमीर शेख इन सात आरोपियों को उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी।
अभी कहनेवाले कह रहे हैं कि मजहब देखकर जांच एजेंसियों को दोषी ठहराने का काम किया, जो पकड़े गए वे तो बेचारे हैं, बेकसूर हैं।बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले के बाद अब ये फैलाया जा रहा है कि आरोपियों को फंसाया गया, एजेंसियों ने उनके खिलाफ साजिश की। यानी कि आप अपनी ही जांच एजेंसियों पर भरोसा नहीं कर रहे! लेकिन उन जजों के लिए क्या कहेंगे ? जिन्होंने तत्कालीन साक्ष्यों के आधार पर माना कि उक्त सभी आरोपित दोषी हैं और इसलिए उन्हें कड़ी से कड़ी सजा दी जाएगी। जिस एक आरोपित को सबूतों के अभाव में छोड़ दिया गया था फिर तो मजहब के नाम पर उसे भी स्पेशल कोर्ट को दोषी ठहरा देना था ? लेकिन ऐसा नहीं है, न्यायालय ने दोषी उन्हें ही माना, जिनके खिलाफ पुख्ता सबूत थे।
फिर एक बार मुंबई हाई कोर्ट का निर्णय पूरे सिस्टम पर करारा तमाचा है
देखा जाए तो आज इस मुंबई लोकल सीरियल ब्लास्ट में आरोपियों का छूटना सिर्फ घटना से प्रभावित परिवारों का दर्द नहीं है, यह हमारे पूरे सिस्टम पर करारा तमाचा है। ये सवाल बार-बार पूछा जाता रहेगा कि इस पूरी घटना में 187 लोगों के हत्यारे कौन हैं? आखिर हत्यारे कोर्ट से छूट कैसे जाते हैं? क्योंकि यह पहली बार नहीं हो रहा। याद आता है, वर्ष 1993 का सूरत ब्लास्ट, जिसमें कि सभी 11 आरोपियों को उच्चतम न्यायालय से दोषमुक्त कर दिया गया था, जबकि टाडा कोर्ट ने इन आरोपियों को बीस साल तक की सजा सुनाई थी। वर्ष 2006 में महाराष्ट्र के नांदेड में हुए बम धमाके में ही यही देखने को मिला, जब नौ आरोपियों को न्यायालय से दोषमुक्त कर दिया गया था। 13 मई 2008- जयपुर में सीरियल बम धमाकों को भी इसलिए याद किया जाता रहेगा क्योंकि जिंदा बम मिलने के बाद जिन्हें दोषी माना गया उन्हें कोर्ट ने बरी कर दिया था। जब खोजने जाते है, तो इस तरह के अन्य कई प्रकरण देखने को मिलते हैं, जिनमें जिन्हें पहले दोषी ठहराया गया, वे आगे दोषमुक्त हो गए और जो उक्त घटना के प्रभावित पीड़ित थे, वे आज भी अपने साथ न्याय होने का इंतजार कर रहे हैं।
(लेखक, हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / डॉ. मयंक चतुर्वेदी
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