डॉ. निवेदिता शर्मा
धरती पर जीवन का सौंदर्य तभी पूर्ण होता है जब मनुष्य और वन्यजीव एक-दूसरे के साथ संतुलन में रहें। भारत की मिट्टी में बसे अनगिनत किस्से, लोककथाएँ और परंपराएँ इस संतुलन के साक्षी रहे हैं। भारत की धरती पर जब सुबह का सूरज जंगलों की हरियाली को सुनहरे रंग में रंग देता है, तब दूर पहाड़ियों से आती एक धीमी-सी आवाज़ कानों में पड़ती है, जो धीरे-धीरे गूंज में बदल जाती है; यह आवाज़ है हाथियों के झुंड की, जो अपने पारंपरिक रास्तों से होकर नदी किनारे की ओर बढ़ रहा होता है। यह दृश्य सदियों से भारतीय परिदृश्य का हिस्सा रहा है।
‘हाथी’ केवल एक जीव नहीं, बल्कि हमारे देश की संस्कृति, आस्था, लोककथाओं और पारिस्थितिक संतुलन का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। भारत में ‘हाथी’ का स्थान केवल जंगल तक सीमित नहीं है; वह मंदिर के आंगन में पूजनीय है। गणेश जी, जिन्हें विघ्नहर्ता कहा जाता है, का स्वरूप हाथी के सिर से है। दक्षिण भारत के मंदिरों में हाथियों को पवित्र माना जाता है और कई बार उन्हें विशेष पूजा और अनुष्ठानों में शामिल किया जाता है। केरल के प्रसिद्ध त्रिशूर पूरम में सजे-धजे हाथियों की शोभायात्रा केवल एक दृश्य नहीं, बल्कि सांस्कृतिक गौरव का प्रतीक है। राजस्थान और उत्तर प्रदेश में भी ऐतिहासिक रूप से हाथियों का उपयोग युद्ध और राजसी शोभायात्राओं में किया गया। महाभारत और रामायण जैसे महाकाव्यों में हाथियों का उल्लेख युद्ध के मैदानों से लेकर राजमहलों तक मिलता है। इसी महत्व और संबंध को स्मरण करने के लिए हर वर्ष 12 अगस्त को “विश्व हाथी दिवस” मनाया जाता है। इस वर्ष यह दिवस तमिलनाडु के कोयंबटूर में, पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय और तमिलनाडु वन विभाग के संयुक्त प्रयासों से विशेष रूप से आयोजित हो रहा है।
कोयंबटूर का चयन केवल भौगोलिक संयोग नहीं, बल्कि प्रतीकात्मक महत्व रखता है। यह क्षेत्र तमिलनाडु के उन इलाकों में से एक है जहां हाथियों की संख्या उल्लेखनीय है और जहां राज्य ने लंबे समय से मानव-हाथी संघर्ष को कम करने के लिए व्यापक प्रयास किए हैं। यहां के जंगल, पहाड़ियां और नदियां सदियों से हाथियों के प्रवास पथ का हिस्सा रहे हैं। इस वर्ष के आयोजन का उद्घाटन केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव करेंगे, उनके साथ केंद्रीय राज्यमंत्री कीर्ति वर्धन सिंह और तमिलनाडु सरकार के वन एवं खादी मंत्री थिरु आरएस राजकन्नप्पन भी मौजूद रहेंगे। यह कार्यक्रम केवल एक मंच नहीं, बल्कि एक ऐसा अवसर है जहां नीति-निर्माता, वैज्ञानिक, वन अधिकारी, सामाजिक कार्यकर्ता और आम लोग एक साथ बैठकर चर्चा करेंगे कि कैसे हम अपने राष्ट्रीय विरासत पशु को सुरक्षित रख सकते हैं।
‘हाथी’ केवल भारत का नहीं, बल्कि पूरे एशिया का साझा धरोहर हैं। नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, म्यांमार और थाईलैंड तक फैला उनका ऐतिहासिक आवास हमें याद दिलाता है कि संरक्षण की जिम्मेदारी सीमाओं से परे जाती है लेकिन भारत में यह जिम्मेदारी खास है, क्योंकि यहां उनकी आबादी सबसे ज्यादा है। इस जिम्मेदारी का निर्वहन केवल सरकारी प्रयासों से नहीं होगा। इसमें आम लोगों की भागीदारी अनिवार्य है। यही कारण है कि इस आयोजन के हिस्से के रूप में 5,000 स्कूलों के 12 लाख बच्चों को शामिल करते हुए एक राष्ट्रीय जागरूकता कार्यक्रम शुरू किया जा रहा है। यह भविष्य में बदलाव की नींव रखेगा, क्योंकि जो बच्चे आज हाथियों के महत्व को समझेंगे, वे बड़े होकर उनके संरक्षण के सबसे बड़े समर्थक बनेंगे।
वास्तव में भारत को दुनिया भर में हाथियों के लिए एक सुरक्षित पनाहगाह के रूप में देखा जाता है। यह गर्व का विषय है कि दुनिया के लगभग 60 प्रतिशत जंगली ‘हाथी’ हमारे देश की धरती पर विचरण करते हैं। यहां 33 हाथी अभयारण्य और 150 चिन्हित हाथी गलियारे हैं, जो उनके लिए जीवन रेखा का काम करते हैं। राष्ट्रीय विरासत पशु का दर्जा प्राप्त ‘हाथी’ हमारे धार्मिक अनुष्ठानों से लेकर लोकगीतों तक और किसानों की फसलों से लेकर जंगल के पर्यावरणीय संतुलन तक, हर जगह अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है।
तमिलनाडु की पहाड़ियों और पश्चिमी घाट के जंगलों में हाथियों के लंबे प्रवास पथ हैं। इन्हें हाथी गलियारे कहा जाता है। ये गलियारे हाथियों के लिए वैसे ही हैं जैसे मनुष्यों के लिए सड़कें और रेलमार्ग, इनके बिना उनका आवागमन और जीवन संभव नहीं। लेकिन विकास की रफ्तार ने इन गलियारों को खंडित कर दिया है। जंगलों को काटकर बनाई गई सड़कें, रेल लाइनें, खनन क्षेत्र और शहरी विस्तार ने हाथियों के पारंपरिक रास्तों को रोक दिया है। जब ये रास्ते अवरुद्ध होते हैं, तो हाथी अनजाने में मानव बस्तियों में प्रवेश कर जाते हैं। यहां उनका सामना उन खेतों और घरों से होता है जो कभी उनके रास्ते में नहीं थे। नतीजा यह होता है कि फसलें बर्बाद होती हैं, संपत्ति को नुकसान पहुंचता है और कभी-कभी जान-माल का भारी नुकसान होता है। आंकड़े बताते हैं कि भारत में हर साल लगभग 500 मनुष्य और 100 से ज्यादा हाथी मानव-हाथी संघर्ष में मारे जाते हैं। फिर भी कहना होगा कि भारत की प्रगति और हाथियों के संरक्षण को साथ लेकर चलना कठिन जरूर है, लेकिन असंभव नहीं।
प्रोजेक्ट एलीफेंट, जिसे भारत सरकार ने 1992 में शुरू किया था, आज भी हाथियों के संरक्षण की सबसे बड़ी पहल है। इसका उद्देश्य केवल हाथियों की संख्या बढ़ाना नहीं, बल्कि उनके प्राकृतिक आवास की रक्षा करना और मानव-हाथी संघर्ष को कम करना भी है। यह परियोजना इस सिद्धांत पर आधारित है कि संरक्षण तभी सफल होगा जब स्थानीय लोग इसे अपना मानें। इसके लिए कई राज्यों में सामुदायिक भागीदारी के कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं, जिनमें गांव वालों को प्रशिक्षित किया जाता है कि वे हाथियों की गतिविधियों पर नजर रखें, समय पर सूचित करें और संघर्ष से बचें।
हाथियों के संरक्षण में तकनीक की भूमिका भी तेजी से बढ़ रही है। ड्रोन के जरिए हाथियों की गतिविधियों पर नजर रखना, जीपीएस कॉलर लगाकर उनके प्रवास मार्ग को ट्रैक करना, और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस आधारित चेतावनी प्रणालियों का उपयोग करना, ये सभी आधुनिक तरीके हैं, जो कई राज्यों में सफल हो रहे हैं, लेकिन विशेषज्ञ मानते हैं कि तकनीक के साथ-साथ पारंपरिक ज्ञान को भी महत्व देना जरूरी है। गांव के बुजुर्ग अक्सर मौसम, पौधों और पशुओं के व्यवहार के आधार पर हाथियों के आने-जाने का अनुमान लगा लेते हैं। इस सब के बीच आज फिर विश्व हाथी दिवस हमें हर साल की तरह यह याद दिला रहा है कि धरती केवल मनुष्यों की नहीं है। यह उन प्राणियों की भी है जो हमसे पहले यहां थे और शायद हमारे बाद भी रहेंगे, अगर हम उन्हें रहने देंगे।
अब तक के प्राकृतिक सफर में हाथियों का संरक्षण हमारी सभ्यता की संवेदनशीलता और संतुलन का प्रमाण है। आगे भी इनका अस्तित्व बना रहे, इसलिए आने वाली पीढ़ियों के लिए सबसे बड़ा उपहार यही होगा कि जंगल के इस सबसे बड़े पशु के साथ हम अपना दोस्ताना व्यवहार बनाए रखें, तभी वे भविष्य में भी जंगल में हाथियों के झुंड को देख पाएंगे, उनकी गर्जना सुन सकेंगे और यह महसूस कर सकेंगे कि मनुष्य और प्रकृति का साथ ही जीवन का सबसे सुंदर रूप है।
(लेखिका, जैव विविधता विषय की अध्येता एवं सामाजिक कार्यकर्ता हैं)
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हिन्दुस्थान समाचार / डॉ. मयंक चतुर्वेदी
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