New Delhi, 27 अगस्त . भारतीय संस्कृति और संस्कृत साहित्य के क्षेत्र में एक युगपुरुष के रूप में विख्यात डॉ. कपिलदेव द्विवेदी का योगदान आज भी प्रेरणा का स्रोत है. उन्होंने 75 से अधिक ग्रंथों की रचना की और संस्कृत को जन-जन तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया. Government of India ने 1991 में उन्हें उनके उत्कृष्ट कार्यों के लिए ‘पद्मश्री’ सम्मान से अलंकृत किया था.
वेद, वेदांग, संस्कृत व्याकरण और भाषा विज्ञान के अप्रतिम विद्वान डॉ. द्विवेदी का जन्म 6 दिसंबर, 1918 को उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के गहमर में एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था. उनके पिता बलराम दास एक समाजसेवी थे, जबकि दादा छेदीलाल एक प्रसिद्ध उद्योगपति थे. मात्र 10 वर्ष की आयु में वे गुरुकुल महाविद्यालय, ज्वालापुर, हरिद्वार में संस्कृत की उच्च शिक्षा के लिए भेजे गए. वहां उन्होंने यजुर्वेद और सामवेद कंठस्थ किए और ‘द्विवेदी’ की उपाधि प्राप्त की.
गुरुकुल में उन्होंने बांग्ला, उर्दू, भारतीय व्यायाम, लाठी, तलवार और युयुत्सु जैसी विद्याओं में भी निपुणता हासिल की. स्वतंत्रता संग्राम में भी उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई और 1939 में हैदराबाद आर्य-सत्याग्रह आंदोलन में भाग लेते हुए 6 माह का कठोर कारावास भोगा.
शिक्षा के क्षेत्र में उनकी उपलब्धियां असाधारण थीं. उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय, लाहौर से प्रथम श्रेणी में एमए (संस्कृत) और एमओएल की उपाधि प्राप्त की. इलाहाबाद विश्वविद्यालय से भाषा विज्ञान में डीफिल और संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय से व्याकरण में आचार्य की उपाधि हासिल की. इसके अतिरिक्त, काशी हिंदू विश्वविद्यालय से हिंदी में एमए किया. डॉ. द्विवेदी ने जर्मन, फ्रेंच, रूसी, चीनी, पाली, प्राकृत, मराठी, गुजराती, पंजाबी और उर्दू जैसी भाषाओं में भी प्रवीणता प्राप्त की.
उनका शिक्षण कार्य नारायण स्वामी हाईस्कूल, रामगढ़, नैनीताल से शुरू हुआ. बाद में वे सेंट एंड्रयूज कॉलेज, गोरखपुर और डीएसबी राजकीय महाविद्यालय, नैनीताल में संस्कृत विभाग के अध्यक्ष रहे. वे 1965 में ज्ञानपुर (भदोही) आए और काशी नरेश राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय में प्राचार्य के पद पर कार्य किया. बाद में वे 1980-82 तक गुरुकुल महाविद्यालय, ज्वालापुर के कुलपति रहे और ज्ञानपुर में विश्व भारती अनुसंधान परिषद की स्थापना की और इसके निदेशक के रूप में कार्य किया.
डॉ. द्विवेदी का विवाह 1953 में ओमशांति के साथ हुआ और उनके पांच पुत्र व दो पुत्रियां हैं. डॉ. द्विवेदी ने 35 वर्ष की आयु से ग्रंथ लेखन शुरू किया और जीवन के अंतिम वर्ष तक 80 से अधिक ग्रंथों की रचना की. उनकी ‘वेदामृतम्’ ग्रंथमाला के 40 खंडों ने वेदों के जटिल ज्ञान को सरल बनाकर जनसामान्य तक पहुंचाया. उनकी रचनाओं ने लाखों लोगों को संस्कृत सिखाने में अहम भूमिका निभाई.
उन्होंने अमेरिका, कनाडा, जर्मनी, फ्रांस, सिंगापुर सहित कई देशों में भारतीय संस्कृति का प्रचार किया. 28 अगस्त 2011 को उनका स्वर्गवास हो गया, लेकिन उनकी कृतियां और योगदान आज भी जीवंत हैं.
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एससीएच/एबीएम
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