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मतदान, मतगणना और स्ट्रॉन्ग रूम की तस्वीरें-वीडियो आखिर क्यों नष्ट कराना चाहता है चुनाव आयोग!

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भारत के चुनाव आयोग और उसके द्वारा कराए जाने वाले चुनावों का खर्च देश के लोगों द्वारा ही उठाया जाता है, यानी जो पैसा टैक्स के रूप में सरकार हमसे लेती है उसी से चुनाव आयोग और चुनावों का खर्च चलता है। लेकिन चुनाव आयोग एकतरफा फैसले कर रहा है जिसमें देश के लोगों की राय शामिल नहीं है। पिछले साल के आखिरी महीने यानी 2024 के दिसंबर में चुनाव आयोग ने अपने नियमों में बदलाव करने और लोगों तक चुनाव के दौरान के सीसीटीवी वीडियो की पहुंच के दुर्गम बनाने का आग्रह किया। आयोग ने ऐसा तब किया जबकि पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने आयोग के आदेश दिया था कि पोलिंग बूथ के सीसीटीवी वीडियो उम्मीदवारों को मुहैया कराया जाए।

आयोग के आग्रह पर तुरत-फुरत सरकार ने चुनाव कराने वाले नियम 93 में बदलाव कर दिया। इस नियम में बदलाव के बाद सीसीटीवी वीडियो आम लोगों के मुहैया कराने पर रोक लग गई। इससे पहले तक चुनाव संपन्न कराने की नियमावली 1961 के नियम 93(2)(ए) के तहत साफ था कि ‘चुनावों से संबंधित सभी दस्तावेज आम लोगों के लिए उपलब्ध होने चाहिए।’

अभी 30 मई को चुनाव आयोग ने राज्यों के मुख्य चुनाव अधिकारियों के निर्देश दिया कि किसी भी चुनाव के नतीजों का ऐलान होने के 45 दिन के बाद चुनाव के दौरान की तस्वीरें और सीसीटीवी वीडियो नष्ट कर दिए जाएं। अलबत्ता एक शर्त जरूर जोड़ी गई कि जिन निर्वाचन क्षेत्रों में एक या एक से अधिक उम्मीदवारों ने चुनावी नतीजों को चुनौती दी हो और इस बाबत चुनाव आयोग के पास याचिका दायर की हो। ऐसे मामलों में यह नियम लगा दिया गया कि ऐसी याचिका नतीजों की घोषणा के 45 दिन के भीतर दायर की जानी चाहिए। लेकिन इस समयसीमा के कारण उम्मीदवारों के पास चुनाव में किसी भी किस्म की धांधली बताने के लिए पर्याप्त समय ही कहां बचता है, और चुनावी नतीजों को चुनौती देना टेढ़ी खीर बन जाता है। इस तरह बहुत कम याचिकाएं दाखिल होंगी और ऐसे मामलों में सिर्फ उम्मीदवारों के ही पास संसाधन होंगे जिसमें नतीजों को चुनौती दी जा सके।

चुनाव आयोग ने इस बात को रेखांकित किया है कि चुनाव प्रक्रिया की वीडियोग्राफी और फोटोग्राफी कानून द्वारा अनिवार्य नहीं है, अपितु इसका उपयोग "आंतरिक प्रबंधन के साधन" के रूप में किया जाता है। चुनाव आयोग का यह आग्रह 6 सितंबर, 2024 को जारी किए गए निर्देशों से अलग है, जिसमें चुनाव प्रक्रिया के विभिन्न चरणों से वीडियो फुटेज संग्रहीत करने के लिए विशिष्ट समयसीमा - तीन महीने से लेकर एक वर्ष तक - निर्धारित की गई थी। पहले के दिशा-निर्देशों के तहत, नामांकन से पहले के वीडियो को तीन महीने तक सुरक्षित रखा जाना था, जबकि नामांकन चरण, प्रचार अवधि, मतदान (मतदान केंद्रों के अंदर और बाहर), और मतगणना की रिकॉर्डिंग को चरण के आधार पर छह महीने से एक वर्ष के बीच की अवधि के लिए संरक्षित किया जाना था।

आयोग के नए निर्देशों का मतलब है कि ऐसे सभी वीडियो रिकॉर्ड को उम्मीदवारों, रिसर्चर्स, शिक्षाविदों और चुनाव सुधारों के लिए काम करने वाले गैर सरकारी संगठनों को उनकी जांच करने का मौका दिए बिना ही नष्ट कर दिया जाएगा। यहां सवाल है कि अब तक तो ऐसे रिकॉर्ड बिना किसी परेशानी के एक साल तक सुरक्षित रखे जा रहे थे, तो फिर चुनाव आयोग उन्हें नष्ट करने की इतनी जल्दी में क्यों है? वह क्या छिपाने की कोशिश कर रहा है? एक तरफ आयोग दावा करता है कि उसके द्वारा कराए जाने वाले चुनाव दुनिया में सबसे पारदर्शी हैं और फिर भी वह इस प्रक्रिया को यथासंभव अपारदर्शी बनाने के लिए हर संभव प्रयास करता दिख रहा है? क्या इसका कोई मतलब है?

बात सिर्फ इतनी ही नहीं है। 20 जून, 2025 को द इंडियन एक्सप्रेस और द वीक सहित मीडिया में कई रिपोर्ट्स में कहा गया है कि चुनाव अधिकारियों को लिखे अपने पत्र में चुनाव आयोग ने यह कहते हुए अपने फैसले को उचित ठहराया है कि, "गैर-उम्मीदवारों द्वारा सोशल मीडिया पर गलत सूचना और दुर्भावनापूर्ण बयानबाजी फैलाने के लिए इस सामग्री का हाल ही में दुरुपयोग किया गया है, जिसमें ऐसी सामग्री का खास तरीके से बिना संदर्भ के इस्तेमाल किया गया है, इससे कोई कानूनी नतीजा नहीं निकल सकता, इसीलिए इस मामले में समीक्षा की जरूरत पड़ी।"

‘हालिया दुरुपयोग’ का मतलब सिर्फ़ यही हो सकता है कि आयोग पिछले कुछ विधानसभा चुनावों, खास तौर पर महाराष्ट्र और हरियाणा में चुनाव कराने में हुई बड़ी चूक से परेशान है। चुनाव अक्टूबर-नवंबर, 2024 में हुए थे। आयोग ने अभी तक मतदाता सूची में मतदाताओं की संख्या और मतदान प्रतिशत में असामान्य वृद्धि की शिकायतों के बारे में संतोषजनक स्पष्टीकरण नहीं दिया है कि आखिर पिछले मतदान के मुकाबले इस बार मतदान आधिकारिक रूप से बंद होने के बाद दोनों राज्यों में लगभग एक प्रतिशत के मुकाबले 7-8 प्रतिशत तक की वृद्धि कैसे हो गई।

यह दावा करने के बाद भी कि वह ऐसे मुद्दे उठाने वाले राजनीतिक दलों को सारी जानकारी देगा, आयोग का मानना है कि आरोप गलत और खराब मंशा से लगाए गए हैं। अगर ऐसा है, तो आयोग के लिए ‘दुरुपयोग’ की मिसालें देना और देश के लोगों के सामने अपनी स्थिति स्पष्ट करना और भी ज़रूरी हो जाता है। यह दावा करना पर्याप्त नहीं है कि ऐसे फुटेज और तस्वीरों का दुरुपयोग किया गया, चुनाव आयोग का यह कर्तव्य है कि वह लोगों को बताए कि उनका दुरुपयोग किसने और कैसे किया।

विशेषज्ञ इस विषय पर अपनी राय जरूर सामने रखेंगे, लेकिन दूसरा सवाल जो लोगों के मन में आया होगा वह यह है कि क्या मतदान केंद्रों और वोटिंग के बाद ईवीएम को रखने वाले स्ट्रांगरूमों के डेटा और दस्तावेज, तस्वीरें और सीसीटीवी फुटेज सार्वजनिक संपत्ति हैं या चुनाव आयोग के? क्या आयोग ऐसे डेटा पर स्वामित्व का दावा कर सकता है या वह केवल संरक्षक है?

यदि वह केवल संरक्षक है, तो चुनाव आयोग मनमाने ढंग से समय-सीमा के बाद डेटा को नष्ट करने का निर्णय कैसे ले सकता है?

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