नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक बड़ा फैसला सुनाया है। कोर्ट ने साफ किया है कि कंपनी के अंदर काम करने वाले वकील, जिन्हें 'इन-हाउस वकील' कहा जाता है, भारतीय साक्ष्य अधिनियम (BSA) के तहत एडवोकेट नहीं माने जाएंगे। यह फैसला जांच एजेंसियों की ओर से वकीलों को बुलाने के मामले में आया है। कोर्ट ने कहा कि इन-हाउस वकील अटॉर्नी-क्लाइंट विशेषाधिकार (Attorney-Client Privilege) के हकदार नहीं होंगे, क्योंकि वे अदालतों में प्रैक्टिस करने वाले वकील नहीं हैं। यह फैसला कानूनी पेशे में एक बुनियादी अंतर को फिर से स्थापित करता है, जो कानून की डिग्री रखने वाले और कानून की प्रैक्टिस करने के अधिकार के बीच है।
कोर्ट ने क्या फैसला सुनाया? सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बीआर गवाई की अगुवाई वाली पीठ ने यह फैसला सुनाया है। जस्टिस के विनोद चंद्रन ने इस फैसले को लिखा है। यह मामला तब उठा जब जांच एजेंसियां वकीलों को उनके मुवक्किलों के साथ हुए विशेषाधिकार प्राप्त संचार (Privileged Communication) के बारे में जानने के लिए बुलाना चाहती थीं। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि ऐसी पूछताछ की अनुमति नहीं है। लेकिन इसी दौरान, कोर्ट ने यह भी जांचा कि भारतीय कानून के तहत 'वकील' (Advocate) कौन होता है।
कानून की डिग्री रखने वाला व्यक्ति 'वकील' होता है?इस चर्चा का मुख्य सवाल यह था कि क्या हर कानून की डिग्री रखने वाला व्यक्ति 'वकील' (Advocate) होता है? कोर्ट का जवाब था, 'नहीं'। कोर्ट ने कहा कि जो लोग कानून की डिग्री रखते हैं और वेतनभोगी कर्मचारी या कानूनी सलाहकार के तौर पर काम करते हैं, जिन्हें 'इन-हाउस वकील' कहा जाता है, वे 'वकील' (advocate) शब्द के दायरे में नहीं आते। इसका सीधा मतलब यह है कि उन पर अटॉर्नी-क्लाइंट विशेषाधिकार लागू नहीं होगा।
पीठ ने अपने फैसले में कहा, 'इन-हाउस वकील धारा 132 के तहत विशेषाधिकार के हकदार नहीं होंगे क्योंकि वे BSA में बताए गए अदालतों में प्रैक्टिस करने वाले वकील नहीं हैं।' यह बात सुनने में भले ही तकनीकी लगे, लेकिन यह एडवोकेट्स एक्ट, 1961 के लागू होने के बाद से मौजूद एक महत्वपूर्ण कानूनी विभाजन को फिर से जीवित करती है। समय के साथ, कॉर्पोरेट जगत में कानूनी भूमिकाओं और अनुपालन-आधारित सलाहकारों की संख्या बढ़ने के कारण यह विभाजन थोड़ा धुंधला पड़ गया था।
कोर्ट ने क्या फैसला सुनाया? सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बीआर गवाई की अगुवाई वाली पीठ ने यह फैसला सुनाया है। जस्टिस के विनोद चंद्रन ने इस फैसले को लिखा है। यह मामला तब उठा जब जांच एजेंसियां वकीलों को उनके मुवक्किलों के साथ हुए विशेषाधिकार प्राप्त संचार (Privileged Communication) के बारे में जानने के लिए बुलाना चाहती थीं। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि ऐसी पूछताछ की अनुमति नहीं है। लेकिन इसी दौरान, कोर्ट ने यह भी जांचा कि भारतीय कानून के तहत 'वकील' (Advocate) कौन होता है।
कानून की डिग्री रखने वाला व्यक्ति 'वकील' होता है?इस चर्चा का मुख्य सवाल यह था कि क्या हर कानून की डिग्री रखने वाला व्यक्ति 'वकील' (Advocate) होता है? कोर्ट का जवाब था, 'नहीं'। कोर्ट ने कहा कि जो लोग कानून की डिग्री रखते हैं और वेतनभोगी कर्मचारी या कानूनी सलाहकार के तौर पर काम करते हैं, जिन्हें 'इन-हाउस वकील' कहा जाता है, वे 'वकील' (advocate) शब्द के दायरे में नहीं आते। इसका सीधा मतलब यह है कि उन पर अटॉर्नी-क्लाइंट विशेषाधिकार लागू नहीं होगा।
पीठ ने अपने फैसले में कहा, 'इन-हाउस वकील धारा 132 के तहत विशेषाधिकार के हकदार नहीं होंगे क्योंकि वे BSA में बताए गए अदालतों में प्रैक्टिस करने वाले वकील नहीं हैं।' यह बात सुनने में भले ही तकनीकी लगे, लेकिन यह एडवोकेट्स एक्ट, 1961 के लागू होने के बाद से मौजूद एक महत्वपूर्ण कानूनी विभाजन को फिर से जीवित करती है। समय के साथ, कॉर्पोरेट जगत में कानूनी भूमिकाओं और अनुपालन-आधारित सलाहकारों की संख्या बढ़ने के कारण यह विभाजन थोड़ा धुंधला पड़ गया था।
- एडवोकेट्स एक्ट, 1961 की धारा 2(a) के अनुसार, 'वकील' (advocate) वह व्यक्ति होता है जिसका नाम किसी राज्य बार काउंसिल की सूची में दर्ज होता है। धारा 29 और 33 यह साफ करती हैं कि केवल ऐसे वकील ही अदालतों, न्यायाधिकरणों या अन्य प्राधिकरणों के सामने कानून का अभ्यास करने के हकदार होते हैं।
- दूसरी ओर, 'लॉयर' (lawyer) एक आम बोलचाल का शब्द है। इसका मतलब कोई भी ऐसा व्यक्ति हो सकता है जिसके पास कानून की डिग्री हो या जो कानूनी काम करता हो। एक लॉयर किसी अनुबंध का मसौदा तैयार कर सकता है, किसी कंपनी को सलाह दे सकता है या कानून भी पढ़ा सकता है। लेकिन जब तक वह बार काउंसिल में नामांकित नहीं होता, तब तक उसके पास अदालत में पेश होने या कानून का अभ्यास करने का कानूनी अधिकार नहीं होता।
- यही 'कानून का अभ्यास करने' का अधिकार, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने BSA की धारा 132 के अर्थ से जोड़ा है, एक वकील और उसके मुवक्किल के बीच के संचार की रक्षा करता है। कोर्ट ने कहा, 'उनके नियमित रोजगार और पूरे वेतन का तथ्य उन्हें एडवोकेट्स एक्ट, 1961 में परिभाषित वकील की परिभाषा से दूर ले जाता है।'
- कोर्ट ने बार काउंसिल ऑफ इंडिया रूल्स के नियम 49 का भी सहारा लिया। यह नियम एक पूर्णकालिक वेतनभोगी कर्मचारी को वकील के रूप में अभ्यास करने से रोकता है। इसके पीछे का तर्क बहुत सीधा है: वकालत एक पेशा है, नौकरी नहीं। इसके लिए निर्णय लेने की स्वतंत्रता और अदालत के प्रति कर्तव्य की आवश्यकता होती है। ये वे गुण हैं जो तब प्रभावित होते हैं जब कोई वकील किसी कंपनी के पदानुक्रम का हिस्सा होता है।
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