नई दिल्ली: तमिलनाडु के कलपक्कम से परमाणु ऊर्जा मोर्चे पर अच्छी खबर आई है। यहां 500 मेगावाट क्षमता वाले फास्ट ब्रीडर रिएक्टर के प्रोटोटाइप में ईंधन भरा जाने लगा है। अप्रैल 2026 तक बिजली उत्पादन शुरू हो जाना चाहिए। ध्यान रहे, रूस के बाद अभी भारत अकेला देश है, जहां यह रिएक्टर टेस्ट स्टेज से प्रोटोटाइप स्टेज तक पहुंचा है। रूस में यह औद्योगिक उत्पादन के स्तर तक पहुंच चुका है, जबकि चीन में अभी टेस्ट स्टेज में ही है।
बेहतर तकनीक: 'फास्ट ब्रीडर' का टेस्ट स्टेज पूरा होने में बीस साल लग गए। आइए, यह क्या है, इसे समझते हैं। 'ब्रीडर' का मतलब है 'पैदा करने वाला'। इस मामले में 'अपना फ्यूल खुद बनाने वाला'। वहीं, 'फास्ट' का एक संदर्भ है। एटॉमिक फ्यूल के नाभिकीय विखंडन से पैदा होने वाले न्यूट्रॉन सामान्य रिएक्टर्स में भारी पानी या नॉर्मल पानी या ग्रेफाइट की छड़ों से धीमे किए जाते हैं, फिर उनका उपयोग चेन रिएक्शन में किया जाता है। फास्ट ब्रीडर रिएक्टर्स में यह चरण सिरे से गायब होता है।
रूस से मदद: बीस साल से हमारे परमाणु वैज्ञानिक और तकनीकीविद अपना ईंधन खुद से ही बनाते रहने वाला एटमी रिएक्टर विकसित करने की कोशिशों में जुटे थे। इसमें कुछ तकनीक उन्होंने बाहर से भी ली- जाहिर है, रूस से, क्योंकि कहीं और अभी यह है ही नहीं। छोटे स्तर पर ही सही, अपना फास्ट ब्रीडर रिएक्टर हमने बना लिया है। यूरेनियम-238 (प्राकृतिक यूरेनियम का 99.3% हिस्सा) खुद में विखंडनीय पदार्थ (फिसाइल मटीरियल) नहीं है। एटमी भट्ठियों में ईंधन की भूमिका यह नहीं निभा सकता। लेकिन यह रिएक्टर उसे ईंधन में बदल देगा।
भाभा का सपना: स्वतंत्रता के पहले दशक में डॉ. होमी जहांगीर भाभा ने परमाणु ऊर्जा के लिए तीन चरणों का कार्यक्रम बनाया था। पहला चरण बाहरी तकनीक और ईंधन से न्यूक्लियर एनर्जी बनाना और इसकी तकनीक में महारत हासिल करना। दूसरा, अपनी तकनीक और अलग ईंधन विकसित करना। तीसरा, परमाणु ऊर्जा में पूरी तरह आत्मनिर्भर होना। तब से सात दशक होने को हैं, लेकिन इस योजना में अभी हम दूसरे चरण के ही कहीं बीच में सिमटे हुए हैं।
दूसरा चरण: आगे फास्ट ब्रीडर रिएक्टर के जरिये यूरेनियम-238 को न्यूक्लियर फ्यूल में बदलकर परमाणु बिजलीघरों में इस्तेमाल किया जा सका, तो डॉ. भाभा की योजना का दूसरा चरण लगभग पूरा मान लिया जाएगा। 'लगभग' इसलिए कि हमारे यहां जब यूरेनियम ही अपनी जरूरत भर के लिए नहीं है तो फ्यूल के लिए किसी न किसी बिंदु पर औरों का मुंह देखना ही पड़ेगा।
थोरियम है अहम: इस समस्या का अकेला तोड़ यही है कि हम यूरेनियम-238 से भी आगे बढ़कर थोरियम को परमाणु संयंत्रों के ईंधन के रूप में विकसित करें, क्योंकि इसकी सबसे ज्यादा मात्रा भारत में है। केरल-उड़ीसा के समुद्र तटों की भारी ललछौंह रेत (मोनाजाइट सैंड्स) में दुनिया का एक चौथाई थोरियम भरा पड़ा है। प्रकृति में मिलने वाले केवल दो तत्व, यूरेनियम और थोरियम को ही परमाणु संयंत्रों के ईंधन की तरह विकसित किया जा सकता है, और डॉ. भाभा का सपना थोरियम के बल पर भारत को आत्मनिर्भर बनाने का था।
प्रयोग कामयाब: सिद्धांततः हमारा फास्ट ब्रीडर रिएक्टर यूरेनियम-238 की तरह थोरियम को भी फ्यूल में बदल सकता है। एक प्रयोगशाला में अलग से थोरियम को न्यूक्लियर फ्यूल में बदलने की कोशिश जारी है और वह कामयाब भी हो चुकी है, लेकिन यह काम अभी रिएक्टर लेवल पर नहीं किया जा सका है।
चीन की सफलता: चीनी फास्ट ब्रीडर रिएक्टर में प्रोटोटाइप के स्तर तक नहीं पहुंचे हैं, लेकिन पिछले अप्रैल में उनके लिक्विड फ्लोराइड थोरियम रिएक्टर (LFTR) को बहुत चर्चा मिली। 1960 के दशक में अमेरिका द्वारा एटम बम के लिए अनुपयोगी मानकर त्याग दी गई एक तकनीकी के हर पहलू पर उन्होंने काम किया और दुनिया में पहली बार यह संभव कर दिखाया कि बिना शटडाउन के उन्होंने अपने न्यूक्लियर रिएक्टर का पूरा ईंधन बदल दिया।
दुनिया की नजर: मात्र दो मेगावाट आउटपुट वाले इस प्रायोगिक रिएक्टर में वे एक बूंद भी पानी का इस्तेमाल नहीं करते। प्रयोग के दूसरे चरण में वे दस मेगावाट का LFTR बना रहे हैं। भारत में थोरियम से न्यूक्लियर फ्यूल बनाने की तकनीक चीन से बहुत अलग रही है लेकिन चीजें जहां पहुंच रही हैं उससे लगता है कि 30 के दशक में दोनों की होड़ को दुनिया गौर से देख रही होगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
बेहतर तकनीक: 'फास्ट ब्रीडर' का टेस्ट स्टेज पूरा होने में बीस साल लग गए। आइए, यह क्या है, इसे समझते हैं। 'ब्रीडर' का मतलब है 'पैदा करने वाला'। इस मामले में 'अपना फ्यूल खुद बनाने वाला'। वहीं, 'फास्ट' का एक संदर्भ है। एटॉमिक फ्यूल के नाभिकीय विखंडन से पैदा होने वाले न्यूट्रॉन सामान्य रिएक्टर्स में भारी पानी या नॉर्मल पानी या ग्रेफाइट की छड़ों से धीमे किए जाते हैं, फिर उनका उपयोग चेन रिएक्शन में किया जाता है। फास्ट ब्रीडर रिएक्टर्स में यह चरण सिरे से गायब होता है।
रूस से मदद: बीस साल से हमारे परमाणु वैज्ञानिक और तकनीकीविद अपना ईंधन खुद से ही बनाते रहने वाला एटमी रिएक्टर विकसित करने की कोशिशों में जुटे थे। इसमें कुछ तकनीक उन्होंने बाहर से भी ली- जाहिर है, रूस से, क्योंकि कहीं और अभी यह है ही नहीं। छोटे स्तर पर ही सही, अपना फास्ट ब्रीडर रिएक्टर हमने बना लिया है। यूरेनियम-238 (प्राकृतिक यूरेनियम का 99.3% हिस्सा) खुद में विखंडनीय पदार्थ (फिसाइल मटीरियल) नहीं है। एटमी भट्ठियों में ईंधन की भूमिका यह नहीं निभा सकता। लेकिन यह रिएक्टर उसे ईंधन में बदल देगा।
भाभा का सपना: स्वतंत्रता के पहले दशक में डॉ. होमी जहांगीर भाभा ने परमाणु ऊर्जा के लिए तीन चरणों का कार्यक्रम बनाया था। पहला चरण बाहरी तकनीक और ईंधन से न्यूक्लियर एनर्जी बनाना और इसकी तकनीक में महारत हासिल करना। दूसरा, अपनी तकनीक और अलग ईंधन विकसित करना। तीसरा, परमाणु ऊर्जा में पूरी तरह आत्मनिर्भर होना। तब से सात दशक होने को हैं, लेकिन इस योजना में अभी हम दूसरे चरण के ही कहीं बीच में सिमटे हुए हैं।
दूसरा चरण: आगे फास्ट ब्रीडर रिएक्टर के जरिये यूरेनियम-238 को न्यूक्लियर फ्यूल में बदलकर परमाणु बिजलीघरों में इस्तेमाल किया जा सका, तो डॉ. भाभा की योजना का दूसरा चरण लगभग पूरा मान लिया जाएगा। 'लगभग' इसलिए कि हमारे यहां जब यूरेनियम ही अपनी जरूरत भर के लिए नहीं है तो फ्यूल के लिए किसी न किसी बिंदु पर औरों का मुंह देखना ही पड़ेगा।
थोरियम है अहम: इस समस्या का अकेला तोड़ यही है कि हम यूरेनियम-238 से भी आगे बढ़कर थोरियम को परमाणु संयंत्रों के ईंधन के रूप में विकसित करें, क्योंकि इसकी सबसे ज्यादा मात्रा भारत में है। केरल-उड़ीसा के समुद्र तटों की भारी ललछौंह रेत (मोनाजाइट सैंड्स) में दुनिया का एक चौथाई थोरियम भरा पड़ा है। प्रकृति में मिलने वाले केवल दो तत्व, यूरेनियम और थोरियम को ही परमाणु संयंत्रों के ईंधन की तरह विकसित किया जा सकता है, और डॉ. भाभा का सपना थोरियम के बल पर भारत को आत्मनिर्भर बनाने का था।
प्रयोग कामयाब: सिद्धांततः हमारा फास्ट ब्रीडर रिएक्टर यूरेनियम-238 की तरह थोरियम को भी फ्यूल में बदल सकता है। एक प्रयोगशाला में अलग से थोरियम को न्यूक्लियर फ्यूल में बदलने की कोशिश जारी है और वह कामयाब भी हो चुकी है, लेकिन यह काम अभी रिएक्टर लेवल पर नहीं किया जा सका है।
चीन की सफलता: चीनी फास्ट ब्रीडर रिएक्टर में प्रोटोटाइप के स्तर तक नहीं पहुंचे हैं, लेकिन पिछले अप्रैल में उनके लिक्विड फ्लोराइड थोरियम रिएक्टर (LFTR) को बहुत चर्चा मिली। 1960 के दशक में अमेरिका द्वारा एटम बम के लिए अनुपयोगी मानकर त्याग दी गई एक तकनीकी के हर पहलू पर उन्होंने काम किया और दुनिया में पहली बार यह संभव कर दिखाया कि बिना शटडाउन के उन्होंने अपने न्यूक्लियर रिएक्टर का पूरा ईंधन बदल दिया।
दुनिया की नजर: मात्र दो मेगावाट आउटपुट वाले इस प्रायोगिक रिएक्टर में वे एक बूंद भी पानी का इस्तेमाल नहीं करते। प्रयोग के दूसरे चरण में वे दस मेगावाट का LFTR बना रहे हैं। भारत में थोरियम से न्यूक्लियर फ्यूल बनाने की तकनीक चीन से बहुत अलग रही है लेकिन चीजें जहां पहुंच रही हैं उससे लगता है कि 30 के दशक में दोनों की होड़ को दुनिया गौर से देख रही होगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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