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शेख हसीना के तख्तापलट का 1 साल... चुनाव से कानून व्यवस्था तक, यूनुस सरकार में चीजें सुधरीं या और बिगड़े हालात?

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ढाका: बांग्लादेश में शेख हसीना की सरकार गिरने का एक साल पूरा हो गया है। हिंसक होते विरोध प्रदर्शनों के बीच 5 अगस्त 2024 को शेख हसीना ने ढाका छोड़कर भारत में शरण ली। इसके साथ ही शेख हसीना के 15 साल के शासन का अंत हो गया। इसके बाद प्रदर्शनकारी प्रधानमंत्री कार्यालय और संसद भवन तक में घुस गए और पूरे देश में अराजकता फैल गई थी। ऐसे में सवाल है कि इस घटनाक्रम के एक साल बाद बांग्लादेश कहां खड़ा है।



डिप्लोमेट की रिपोर्ट के मुताबिक, शेख हसीना की सरकार गिराने वाला आंदोलन बांग्लादेश का पहला जन विद्रोह नहीं था। 1971 में अपनी स्वतंत्रता के बाद से देश ने लगातार राजनीतिक उथल-पुथल सामना किया है। हालांकि बांग्लादेश के इतिहास में 5 अगस्त, 2024 को यह पहली बार हुआ कि किसी मौजूदा प्रधानमंत्री को देश छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा।



यूनुस से थी उम्मीदशेख हसीना के खिलाफ सड़कों पर उतरे छात्रों ने आरोप लगाया कि उनके शासन नें लोकतांत्रिक दायरा सिकुड़ गया है। ऐसे में हसीना के बाद बांग्लादेशियों को व्यवस्था में व्यापक सुधारों की उम्मीद थी। 8 अगस्त को नोबेल पुरस्कार विजेता मोहम्मद यूनुस को अंतरिम सरकार का नेतृत्व मिला तो इन उम्मीदों को बल मिला। यूनुस को तत्काल सुधारों को लागू करते हुए निष्पक्ष चुनाव कराने का जिम्मा सौंपा गया।



यूनुस के सरकार में एक साल गुजारने बाद भी वो वादे अधूरे हैं, जो उनको सत्ता सौंपते हुए किए गए थे। इतना ही नहीं बांग्लादेश में बढ़ी अराजकता और कट्टरता ने इस बात पर संदेह पैदा कर दिया है कि क्या चुनाव वास्तव में स्वतंत्र और निष्पक्ष होंगे। देश में राजनीतिक तनाव फिर से उभर आए हैं। खासतौर से बीएनपी और जमात-ए-इस्लामी के बीच तनातनी है। महिलाओं की सुरक्षा भी चिंता का विषय बनती जा रही है।



कानून व्यवस्था का मुद्दा बरकरारयूनुस के सत्ता संभालने के बाद से उनकी अंतरिम सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक कानून-व्यवस्था बहाल करना है। जनवरी 2025 में ही 294 हत्या के मामले दर्ज किए गए, जो पिछले साल जनवरी के 231 मामलों से काफी ज्यादा हैं। राजधानी ढाका सबसे ज्यादा प्रभावित है। ढाका में लोग अंधेरा होने के बाद बाहर जाने तक से कतराते हैं।



ढाका विश्वविद्यालय में प्रोफेसर तवोहिदुल हक ने द डिप्लोमैट को बताया कि पुलिस बल को अब जनता अविश्वास की नजर से देखती है। उन्हें रक्षक नहीं उत्पीड़क के रूप में देखा जाता है। इतना ही नहीं सुरक्षाबलों के अंदर भी तनाव गहरा रहा है। इस सबके बीच भीड़ के हमलों ने समाज में नए डर पैदा कर दिए हैं। खासतौर से बांग्लादेश के सबसे बड़े धार्मिक अल्पसंख्यक, हिंदू समुदाय को हमलों का सामना करना पड़ा है।



संयुक्त विद्रोह से विभाजित राजनीतिशेख हसीना के खिलाफ आंदोलन में बांग्लादेश में सभी प्रमुख विपक्षी राजनीतिक दल और ज्यादातर संगठन एकजुट दिखे थे। हसीना के देश छोड़ने के बाद यह एकता तेजी से टूटी है। वर्तमान में सभी दल अंतरिम सरकार का समर्थन करते हैं लेकिन कई मुद्दों खासतौर से चुनाव को लेकर इनमें गहरे मतभेद में हैं। हसीना की अवामी लीग के बाद देश की सबसे बड़ी राजनीतिक ताकत बीएनपी ने एनसीसी के प्रमुख सुधार प्रस्तावों को खारिज कर दिया है। देश चुनावों को लेकर अभी भी उपापोह की स्थिति है।



बीएनपी और जमात-उद-दावा के बीच बढ़े तनाव ने खासतौर से राजनीतिक तापमान को बढ़ाया है। जमात नेताओं ने बीएनपी पर जबरन वसूली और भ्रष्टाचार का आरोप लगाया है। दूसरी ओर बीएनपी समर्थकों ने 1971 के युद्ध में उसकी भूमिका के लिए घेरा है। इससे दोनों के बीच टकराव की स्थिति पैदा हो गई है। इस बीच जमात-उद-दावा ने इस्लामी आंदोलन बांग्लादेश, बांग्लादेश खिलाफत मजलिस और दूसरी इस्लामी पार्टियों के साथ एक नया गठबंधन बनाने की दिशा में कदम बढ़ाया है।



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महिलाओं को नहीं मिला हकशेख हसीना के खिलाफ आंदोलन में महिलाएं अग्रिम पंक्ति में दिखी थीं। इस दौरान महिलाओं को अपने अधिकारों को लेकर बड़ी उम्मीद थी लेकिन एक साल बाद ये उम्मीदें टूट गई हैं। यूनुस सरकार में महिलाओं के खिलाफ हिंसा बढ़ी है। महिलाएं राजनीतिक रूप से भी हाशिए पर हैं। ये दिखाता है कि यूनुस सरकार में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और जवाबदेही दूर की कौड़ी बनी हुई है। लोकतांत्रिक पुनरुत्थान का रास्ता भी अभी नहीं दिख रहा है।

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