आदित्य सोंधी, नई दिल्ली: पाकिस्तानी सेना के लिए कश्मीर का मुद्दा अपनी राजनीतिक वैधता साबित करने का सबसे बड़ा आधार रहा है। इसका शुरू से आरोप रहा है कि भारत, कश्मीर का इस्तेमाल पाकिस्तान में माहौल बिगाड़ने और विभाजन के फायदों से उसे वंचित रखने के लिए करता है। चाहे जितना भी अजीब लगे, यह सच है कि 1965, 1971 और 1999 के युद्धों में मिली हार के बाद खुद को राजनीति की मुख्यधारा में बनाए रखने के लिए रावलपिंडी ने इसी मुद्दे का सहारा लिया। गले की नस : 22 अप्रैल को हुए पहलगाम हमले से कुछ ही दिन पहले ‘गले की नस’ के रूप में कश्मीर का जिक्र कर जनरल असीम मुनीर ने अपनी और पाकिस्तानी सेना की इसी प्रवृत्ति को रेखांकित किया। पहलगाम में हिंदू पर्यटकों को निशाना बनाने का मकसद भारत के अंदर हिंदू-मुस्लिम दरार को बढ़ावा देने के साथ ही देश को अंदर से कमजोर करना भी था। आतंकवादियों की गोली का शिकार हुए लेफ्टिनेंट विनय नरवाल की विधवा हिमांशी नरवाल ने कश्मीरियों और मुसलमानों के खिलाफ नफरत न फैलाने की अपील कर आतंकी संगठनों के प्रयासों की हवा ही निकाल दी। हालांकि अफसोस की बात है कि अपने ही देशवासियों के एक छोटे से हिस्से ने उन्हें भी नहीं बख्शा। आंख का कांटा इमरान : जनरल मुनीर को पता है कि बतौर प्रधानमंत्री इमरान खान की लोकप्रियता का ग्राफ कितना ऊंचा था और सत्ता गंवाने के बाद भी यह कैसे बरकरार है। सैन्य सत्ता प्रतिष्ठान के लिए यह बात खासी असुविधानजक है कि कोई गैर-फौजी नेता लोगों के बीच इस कदर प्रभावशाली बना रहे। पुलवामा आतंकी हमले के बाद बालाकोट एयर स्ट्राइक के समय इमरान खान संयम दिखाने में कामयाब रहे। लेकिन इस समय स्थिति अलग है। पाकिस्तानी सेना की कार्रवाई : मौजूदा प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ सेना की मर्जी को अनदेखा नहीं कर सकते। सेना की मर्जी क्या है, यह गुरुवार को उसकी तरफ से की गई उसकी कार्रवाइयों से स्पष्ट है। हालांकि भारत ने उसकी हर कवायद का माकूल जवाब दिया है और आगे भी वह जैसे को तैसा की तर्ज पर एक्शन के लिए तैयार है। जहां तक शरीफ की बात है तो सिंधु जल समझौता स्थगित करने और मंगलवार रात आतंकी ठिकानों पर मिसाइलें दागने को वह पहले ही युद्ध की कार्रवाई करार दे चुके हैं। मामला भड़कने के आसार : ऐसे में भारत के यह कहने का खास मतलब नहीं है कि ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के तहत उसने नपी-तुली और संतुलित कार्रवाई की, जिसका मकसद किसी तरह के उकसावे को बढ़ावा देना नहीं था। पाकिस्तान सरकार भी अपनी सेना को ‘फ्री हैंड’ देने की बात कह चुकी है। पाकिस्तान की ओर से भारत के कुछ शहरों को निशाना बनाने की कोशिश हुई, जिसे नाकाम कर दिया और भारत ने पाकिस्तान के कुछ एयर डिफेंस सिस्टम भी नष्ट कर दिए। वहीं, चीन ने भले ही दोनों पक्षों से संयम बरतने की अपील की हो, लेकिन भारत के अभियान पर खेद जताकर वास्तव में उसने पाकिस्तान के प्रति समर्थन जता दिया है। इससे पूरे मामले का पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा अंतरराष्ट्रीयकरण हो चुका है। साफ है कि मामला जल्दी शांत होता नहीं दिख रहा। विवाद के केंद्र में कश्मीर : जब भारत ने मंगलवार को देश भर में मॉक ड्रिल की घोषणा की, तब माना गया कि 1971 की तर्ज पर भारत धीरे-धीरे तनाव बढ़ाते हुए साल के आखिर में जाकर तेज हमले करेगा। लेकिन इन हमलों ने स्पष्ट कर दिया है कि भारत सरकार युद्ध के लिए तैयार है। यहां तक कि चीन सीमा पर संघर्ष शुरू होने की आशंका भी उसके इरादों को कमजोर नहीं कर सकती। ऐसे में साफ है कि हमें पूर्ण युद्ध की स्थिति के लिए तैयार रहना होगा। और हां, कश्मीर इस बार भी झगड़े के केंद्र में आ ही जाएगा। टूट गया भ्रम : अनुच्छेद 370 के खात्मे और जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव निपटने के बाद माना जाने लगा था कि अब वहां सब ठीक है। लेकिन यह भ्रम टूट चुका है। पहलगाम हमले को अंजाम देने वाले चार आतंकवादी अभी भी पकड़ से दूर हैं। उन्हें मिले स्थानीय समर्थन की जांच की जा रही है। नेतृत्व की अग्निपरीक्षा : जो बात शीशे की तरह साफ है, वह यह कि कश्मीरियों ने आतंकवादियों का मुकाबले करने और पीड़ितों की मदद करने में असाधारण साहस का परिचय दिया और आतंकवाद के इस अभिशाप को कोसने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी। पाकिस्तान की ओर से हो रही ‘दखलंदाजी’ के बीच हम कश्मीर में अमन-चैन कैसे बहाल करते हैं, यह भारतीय नेतृत्व की काबिलियत की असल परीक्षा होगी। जनरल ही निर्णायक : भारत अभी भले ही जनरल मुनीर की चाल को नाकाम करता दिख रहा हो, पाकिस्तान के इतिहास में अहम मोड़ों पर सेना के जनरल ही निर्णायक भूमिका निभाते रहे हैं। और, यह स्थिति हाल-फिलहाल तो बदलती नहीं दिख रही। (लेखक ‘पोल्स अपार्ट: मिलिट्री एंड डेमोक्रैसी इन इंडिया एंड पाकिस्तान’ पुस्तक लिख चुके हैं)
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