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अनन्य भाव से ईश्वर में मन लगाने से खुलने लगते हैं मुक्ति के द्वार : डॉ. उमेशचन्द्र शर्मा

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झाबुआ, 2 सितम्बर (Udaipur Kiran) । हमारा मन ही बन्धन और मोक्ष दोनों का कारण है, यह मन यदि वासनाओं के वशीभूत होकर संसार में लगे तो बंधन का कारण बन जाता है, और यदि ईश्वर की और उन्मुख हो जाए तो मोक्ष का कारण बन जाता है। मन ही बुद्धि को भ्रमित करता है, और यही मन परमात्मतत्व की प्राप्ति में भी हमारा सहायक बन जाता है। इसलिए यह हम पर ही निर्भर है कि हम अपने मन को भोग विलास की तरफ जाने की छूट देते हैं, या फिर ईश्वर की सेवा में लगाते हैं। यह चुनाव हमारा है, जिसे समय रहते हमें करना होगा।

उक्त विचार मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले के थान्दला में श्रीमद्भागवत भक्ति पर्व के अन्तर्गत आयोजित नौ दिवसीय श्रीमद्भागवत सप्ताह महोत्सव के दूसरे दिन मंगलवार को स्थानीय श्रीलक्ष्मीनारायण मंदिर सभागार में श्रीमद्भागवत कथा के दौरान कथावाचक डॉ. उमेशचन्द्र शर्मा ने व्यक्त किए। शर्मा श्रीमद्भागवत में वर्णित प्रसंग पुरंजनोपाख्यान का वर्णन करते हुए कथा वाचन कर रहे थे।

शर्मा ने उक्त आख्यान में कहा कि राजा पुरंजन की पुरंजनी नामक स्त्री में गहरी आसक्ति ने उसे स्त्रीमय बना दिया, परिणामस्वरूप न केवल इस जन्म में वह भोग वासनाओं का दास बना रहा और पुरंजनी स्त्री के हाथों में खेलता रहा, बल्कि दूसरे जन्म में भी उसे स्त्री के रूप में जन्म लेना पड़ा। एक मित्र अविज्ञात के रूप में ईश्वर सदा उसके साथ रहा, और उसे सावधान करने का प्रयास करता रहा, किन्तु कामान्ध पुरंजन कुछ समझ न सका, और मृत्यु का काल आ पहुंचा। जीवन के अंतिम समय में भी उसने स्त्री का चिंतन करते हुए ही देह का त्याग किया था, अतः अंत: गति सो मति, उसे स्त्री के रूप में जन्म लेना पड़ा।

उन्होंने कहा कि यह कथा केवल एक पुरंजन की ही नहीं, वल्कि हम सबकी कथा है। इसलिए यह निश्चित है कि हमारी आसक्ति चाहे सांसारिक भोग वासनाओं में हो, चाहे ईश्वर में हो, वह अवश्य ही संस्कार का रूप ग्रहण करेंगी, और वर्तमान जीवन ही नहीं, बल्कि आगामी जीवन की भी दिशा निर्धारित करेगी, इसीलिए हमारे धर्म शास्त्रों में बार बार रेखांकित किया गया है कि हम अपना मन भगवान् में लगाएं। वेद, उपनिषद और पुराणों में इन्द्रियों से की जाने वाली भक्ति के बदलें मन से की गई भक्ति को ही श्रैष्ठ माना गया है। ईश्वर निमित्त सब कर्मों में हम अपने मन को संयुक्त कर दें, तो साधना परिपूर्णता की ओर बढ़ेगी।

कथा में भगवान् कपिल देव द्वारा अपनी माता देवहूति को दिए गए उपदेश प्रसंग का वाचन करते हुए शर्मा ने कहा कि महायोगी भगवान् श्री कपिलदेव ने आत्म ज्ञान का उपदेश करते हुए भक्ति योग की महिमा का वर्णन किया। भगवान् श्री कपिलदेव अपनी माता को भक्ति तत्व का उपदेश करते हुए कहते हैं कि जो मुझमें अनन्य भाव से सुद्रढ़ प्रेम करते हुए मेरे लिए संपूर्ण कर्म तथा अपने सगे संबंधियों को भी त्याग देते हैं, और मेरे परायण रहकर मेरी पवित्र कथाओं का श्रवण, कीर्तन करते हैं, तथा मुझमें ही चित्त लगाए रहते हैं, उन भक्तों को संसार के विभिन्न ताप कोई कष्ट नहीं पहुंचाते हैं। आज कथा में दक्षवध, ध्रुव की भक्ति एवं महाराज पृथु के आख्यान भी कहे गए।

(Udaipur Kiran) तोमर

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